Friday, March 9, 2012
अब मैं लखनऊ आ गया...
Sunday, October 17, 2010
वर्धा से आप लोग क्यों चले गये… ?
जबसे हम इलाहाबाद से वर्धा आये तबसे कोई हम लोगों से मिलने वाला आता ही नहीं था। हम और दीदी अकेले यहाँ खेला करते थे। सुबह-शाम डैडी के साथ बात-चीत हो पाती थी। लेकिन अभी दो दिनों के लिए सबकुछ बदल गया।
पिछले शनिवार और इतवार को वर्धा में बहुत चहल-पहल थी। खू्ब सारे अंकल्स और ऑंटी आये हुए थे। इन लोगों ने हम सबसे खूब बातें की, फोटुएँ खिचाईं। हम भी इनके बीच घूमते टहलते रहे। डैडी तो कई दिन पहले से ही हम लोगों से कम बात करने लगे थे। ऑफ़िस से देर कर के लौटते और घर पर भी फोन पर बात करने में लगे रहते। मम्मी भी हम लोगों को डैडी से बात करने से मना करती रहती। कहती थीं कि सेमिनार के बाद बात करना। हम इस सेमिनार का मतलब तो जानते ही नहीं थे। लेकिन ९-१० अक्तूबर को जब मेला जैसा लगा तो कुछ-कुछ समझ में आगया।
हमने डैडी से पूछा कि मुझे भी सेमिनार में ले चलोगे? डैडी कुछ जवाब देते इसके पहले ही दीदी ने बता दिया कि इस कार्यक्रम में सभी ब्लॉगर बिना बुलाये भी जा सकते हैं। अब मैं छोटा ही सही पर ब्लॉगर तो हूँ ही। मैंने जल्दी से मम्मी को कहा कि मुझे भी तैयार कर दो। नर्सरी क्लास की शनिवार को छुट्टी होती ही है इसलिए मुझे स्कूल से छुट्टी भी नहीं लेनी पड़ी।
मैने हॉल में देखा ढेर सारे लोग इकठ्ठा हो गये हैं। सामने मंच पर छः कुर्सियाँ थीं जिनपर वीसी अंकल के साथ दूसरे मेहमान बैठ गये। उनमें से कविता ऑण्टी के अलावा एक दाढ़ी वाले अंकल बीती रात मेरे घर भी आ चुके थे। मैं मम्मी के साथ ब्लॉगरों के लिए रिज़र्व कुर्सियों पर बैठ गया। डैडी ने माइक पर बोलना शुरू किया। फिर बारी-बारी से कई लोगों ने स्पीच दिया। मुझे वह सब याद नहीं रहा। मैंने तो केवल वहाँ का सीन याद कर रखा है। आप लोगों को दिखाना चाहता हूँ।
सबसे अच्छा सीन गेस्ट हाउस का था। सबलोग सुबह-शाम खुले चबूतरे पर इकठ्ठा होते और चाय-नाश्ता के बीच खुब हँसी ठिठोली करते। दूसरे दिन शाम को मम्मी-डैडी के साथ मैं भी वहाँ गया था। सबलोग मेरी चोट का हाल पूछ रहे थे। असल में दीदी के साथ सड़क पर दौड़ते हुए मैं अचानक गिर पड़ा था जिससे दोनो घुटने छिल गये थे और माथे पर गुब्बड़ निकल आया था। …तो लम्बे-लम्बे बालों वाले दादा जी ने (आलोकधन्वा) मेरे लिए बैण्ड-एड लाकर दिया और साथ में चाकलेट भी। मैं सारा दर्द भूल चुका था लेकिन सबलोग मुझे सहला कर उसी के बारे में पूछ रहे थे।
थोड़ी देर तक तो बहुत अच्छा लगा। सबने मुझे खूब प्यार किया। फोटुएँ खिचायी गयी। लेकिन उसके बाद एक-एककर सबलोग जाने लगे। टाटा सूमो आती और उन्हें बिठाकर ले जाती। डैडी सबको विदा करते इमोशनल होते जा रहे थे। मम्मी मुझे लेकर घर आ गयी। कुछ लोगों को डैडी अपनी सेण्ट्रो में ले गये। मुझे घर ही छोड़ दिया। इससे मेरा मन उदास हो गया।
अगले दिन से स्कूल था। मैं सबकुछ भूलने लगा था। लेकिन आज फिर शनिवार है। मैं घर पर ही हूँ और आप लोगों की बहुत याद आ रही है।
आप लोग वर्धा से क्यों चले गये?
(सत्यार्थ शंकर त्रिपाठी)
Sunday, December 6, 2009
आज मेरा जन्मदिन है... छः दिसम्बर !!!
हाँ जी, अब से तीन साल पहले गोरखपुर के एक नर्सिंग होम में मैं इस दुनिया में लाया गया। तबसे जब भी मेरा यह जन्मदिन आता है लोग पता नहीं क्यों हिन्दू-मुसलमान और राजनीति की बातें ज्यादा करने लगते हैं। लेकिन मुझे क्या... मैं तो आज भी रोज की तरह सुबह-सुबह बरामदे में उतर आयी धूप में विशू के साथ खेलने में मस्त हूँ। ‘वीशू’-अरे वही चम्पा ऑण्टी की बेटी... ‘चम्पा ऑण्टी’ - वही जो हमारे घर खाना बनाने आती हैं...।
डैडी ने कहा कि फोटू खींचना है तो मैने उन्हें ओब्लाइज कर दिया है। आप भी देख लीजिए मैं कितना क्यूट और स्मार्ट लग रहा हूँ।
तो आपलोग चाहें तो मुझे हैप्पी बड्डे बोल सकते हैं। सबको प्रणाम और अग्रिम धन्यवाद।
Saturday, September 19, 2009
मेरी एक कविता मेरे डैडी ने लिखी…
आपने इसे यदि न पढ़ा हो तो जरूर पढ़ लीजिए। यह मेरी ही कविता है। डैडी ने मुझे बताये बिना इसे अपने ब्लॉग पर छाप दिया था-
सभी अंकल्स और आण्टियों को सादर प्रणाम! भैया-दीदी को नमस्ते
-सत्यार्थ
Sunday, September 6, 2009
वह झूमने वाला गुड्डा...
खिलौना घोड़े पर बैठे हुए एक सुन्दर से गुड्डे को झूमता देख मैंने भी उसकी नकल में झूमना शुरू कर दिया था। मेरी दीदी भी मेरी नकल करने लगी। चाचा ने डैडी को बुला लिया। डैडी ने मुझे बताये बिना मोबाइल कैमरा चालू कर दिया था।
पहले तो मैं झूमता रहा, लेकिन ज्यों ही मुझे सूटिंग का पता चला मैने ब्रेक ले लिया। मुफ़्त का मनोरंजन क्यों कराता भला? फिर भी कुछ रिकॉर्डिंग तो हो ही चुकी थी। अब सोचता हूँ ...काश
पूरा खेल अब देखने को मिलता। खैर देखिए तो सही...
आप सबके स्नेह से बहुत खु्श हूँ आजकल... अपनी पोस्ट सबसे ज्यादा पढ़ता हूँ:)
(सत्यार्थ)
Wednesday, September 2, 2009
मुझे तो कुछ करने ही नहीं देते...।
मैं अभी छोटा हूँ न... इसलिए मुझे मेरे घर वाले कोई काम ही नहीं करने देते। अपना मुण्डन कराने गाँव गया था। घर के आंगन को रंगोली से सजाने के लिए मेरी दीदी और बुआ लोग जुट गयीं थीं। हल्दी और चावल के घोल की कटोरी मेरे हत्थे चढ़ गयी थी, लेकिन मैंने जैसे ही उसे हाथ लगाया, एक बड़ी सी दीदी ने देख लिया और मुझे डाँट खानी पड़ी।
रोता देखकर डैडी ने मेरी फोटॊ खींचने के लिए मोबाइल निकाल लिया। मजबूरी में मुझे चेहरा ठीक करना पड़ा। रोती हुई फोटू अच्छी नहीं लगती है न...! कभी वैसी फोटू भी दिखाउंगा। अभी तो वही रंगोली वाली ही देखिए।
Tuesday, September 1, 2009
चेहरा ढँकने का खेल
थोड़ा शर्मा तो रहा हूँ, लेकिन ब्लॉगजगत में मौज लेने का रिवाज है, इसलिए इस वीदियो को भी ठेलता हूँ। बस आपके लिए...
इस खेल का वीडियो देखने के लिए यहाँ चटका लगाइए।